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देश की सबसे कम उम्र की जासूस सरस्वती राजमणि को जब महात्मा गांधी ने कहा- अंग्रेज लुटेरे नही, देश के शासक हैं!

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सरस्वती राजमणि (Sarswati rajamani)

 

 सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी देश के उन नायकों में शामिल हैं जहां आकर देश दो विचारधाराओं में बंट जाता हैं। हर किसी के समर्थकों को लगता हैं कि केवल उनकी विचारधारा ही सही हैं और बाकी सब गलत। 

लेकिन आज हम इस पोस्ट में बात करेंगे इतिहास के एक ऐसे अनछुए पहलू की जिसे देश की राजनीति ने इतिहास के पन्नों में शामिल करने हेतु कोई दिलचस्पी नही दिखाई।

बात 19 वीं सदी के उस दौर की हैं जब हमारा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था। ये क्रांतिकारी युग का समय था। उसी समय तत्कालीन म्यामांर देश के एक धनाड्य परिवार में एक ऐसी वीरांगना ने जन्म लिया जो आगे चलकर सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में सबसे कम उम्र की जासूस बनी और अंग्रेजी हुकूमत की खुफिया जानकारी सुभाष चंद्र बोस तक पहुंचाती रहीं।

 

तो आइए विस्तार से जानते हैं म्यामांर में जन्मी राजमणि कैसे सरस्वती राजमणि बनकर आजाद हिंद फौज और नेताजी सुभाष की चहेती बन गई? साथ ही उनके द्वारा लिखी गई उनकी आत्मकथा ” हार नही मानूँगी” से कुछ इतिहास के छिपे हुए राज और सनसनीखेज खुलासों पर भी बात करेंगे।

सरस्वती राजमणि का परिचय

सरस्वती राजमणि (Sarswati rajamani) का जन्म 11 जनवरी 1927 को तत्कालीन म्यामांर (बर्मा) में हुआ था। इनका परिवार धन धान्य से संपन्न था। इतना सम्पन्न था कि कहा जाता हैं राजमणि के पिताजी सोने की खदानों के मालिक थे। इतना अमीर घराना होने के साथ ही राजमणि का परिवार आजादी के आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेता था। राजमणि के पिताजी महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित थे और शांति अहिंसा से आजादी लेने के पक्षधर थे। 

एक बार राजमणि का पूरा परिवार साथ में भोजन कर रहा था तभी रेडियों पर एक खबर आईं और पूरे घर में सन्नाटा छा गया। ये सब देखकर 10 वर्षीय राजमणि को आश्चर्य हुआ। लेकिन जब उसे पता चला कि जिस खबर ने उसके घर के सामान्य माहौल को सन्नाटे में तब्दील कर दिया वो कोई आम खबर नही बल्कि महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा दी जाने की खबर थी, तो उसने भगत सिंह के बारे में खोजकर पढ़ना शुरू कर दिया। इसी के साथ उसने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दे देने वाले सभी वीर क्रांतिकारियों के बारे में भी जान लिया। ये सब जानने के बाद सरस्वती राजमणि का मन पढ़ाई में नही लगता था। उसके अंदर देशभक्ति का भाव हिलोरें लेने लगा। अंग्रेजो की क्रूर और कायराना हरकतों ने उसके अंदर घृणा के भाव भर दिए। यहां से उसने अपने आदर्श झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को बना लिया। 

साथ ही जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी का फरमान सुनाया गया तब देश के तमाम नामी गिरामी नेता और स्वतंत्रता सेनानी मौन रहें, सिवाय नेताजी सुभाष चंद्र बोस के। सुभाष चंद्र बोस ने भगत सिंह की फांसी का मुखर विरोध किया। इस घटना से राजमणि बहुत प्रभावित हुई और वह देश की आजादी के लिए सुभाष चन्र्द बोस द्वारा सुझाई गई राह पर चलने के लिए तैयार होने लगी। 

महात्मा गांधी ने ये सिखाया

इसी दौरान म्यामांर यात्रा पर आए महात्मा गांधी एक दिन उसके घर में ठहरे हुए थे। वहां परिवार के सभी लोग महात्मा गांधी से बातें कर रहे थे जबकि राजमणि वहां नही थी। वह अपने बगीचे में पिस्तौल से निशाना लगाना सीख रही थी। जब महात्मा गांधी की नजर राजमणि पर पड़ी तो वे वहां गए और राजमणि से बाते करने लगे। 

इस घटना का जिक्र सरस्वती राजमणि ने अपनी आत्मकथा  में भी किया हैं। उन्होंने लिखा-

“गांधी जी मेरे पास आये और पूछने लगे कि तुम्हें पिस्तौल से निशाने लगाना सीखने की क्या जरूरत हैं? तब मैंने कहा- अंग्रेजों को देश से मार कर भगाने के लिए।

तब उन्होंने पूछा कि तुम अंग्रेजों को क्यों भगाना चाहती हो? 

तब मैंने कहा कि अंग्रेज लुटेरे हैं वे हमें लूट रहें हैं। 

तब उन्होंने कहा कि अंग्रेज लुटेरे नही हैं वो इस देश के शासक हैं उन्हें मारकर भगाना धर्म और न्याय की दृष्टि से सही नही हैं। 

साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि तुम इतने बड़े बाप की बेटी हो फिर भी तुम्हारे आतंकियों जैसे विचार हैं!

इसके जवाब में मैंने गांधी जी को कहा कि क्या अंग्रेजों को देश का शासक हमने या आम जनता ने बनाया हैं? नही ना! फिर वो हमारे शासक कैसे हुए? वे तो छल, कपट और धोखे से हमारे देश के राजा महाराजाओं से राज्य हथियाते रहें और पूरे देश को गुलाम बनाकर हम पर राज करने लग गए। उन्हें देश से भगाना को अन्याय नही हैं।

इसके बाद मैंने उनसे पूछा कि आप तो शांति अहिंसा की बात करते हैं और अंग्रेजों की छत्र छाया में कांग्रेस को चुनाव लड़वाने के लिए धन भी एकत्रित कर रहे हैं तो क्या आपका ये रास्ता सही हैं? 

तब उन्होंने कहा कि हां मेरा रास्ता बिल्कुल सही हैं क्योंकि अहिंसा को तो शास्त्रों में भी परम् धर्म कहा गया हैं इसलिए अहिंसा के रास्ते पर चलकर ही हम शासन में भागीदारी प्राप्त कर सकेंगे।

इसके जवाब में मैंने महात्मा गांधी को दो टूक कहा कि शास्त्रों के जिस “अहिंसा परमोधर्मः” श्लोक को आप पूरे देश में अपनी अहिंसा का आधार बताते हो उसे मैंने भी शास्त्रों में पूरा पढ़ा हैं। उसमें ‘अहिंसा परमोधर्मः’ के बाद ‘धर्म हिंसा तथैव च’ भी हैं। जिसका अर्थ हैं ‘धर्म की रक्षा के लिए हिंसा उचित हैं’। 

ये सुनकर गांधी जी वहां से चले गए और जाते जाते पिताजी से कह गए कि आपकी बच्ची बहुत बोलती हैं।”

गांधी जी के जाने के बाद सरस्वती राजमणि फिर से निशाना लगाने में व्यस्त हो गई।

इसके कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि आजाद हिंद फौज को धन की जरूरत हैं ओर धन एकत्रित करने के लिए कैम्प लगा हुआ हैं तो राजमणि तुरन्त अपने सारे सोने चांदी के आभूषण दान करने के लिए कैम्प में चली गई। और वहां जाकर सारे आभूषण दान कर दिए। लेकिन जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस को पता चला कि एक किशोरी ने अपने सोने चांदी के बेशकीमती आभूषण दान में दे दिए तो उन्होंने सोचा कि शायद ऐसा उसने भावावेश में आकर किया हो! इसलिए स्वयं नेताजी सुभाष आभूषणों को लौटाने के लिए राजमणि के घर गए। 

सरस्वती राजमणि ऐसे बनी आजाद हिंद फौज में जासूस

राजमणि को जब पता चला कि सुभाष बाबू उसके घर आये तो उसकी खुशी का ठिकाना नही रहा। वह तो कब से ही सुभाष चन्द्र बोस से मिलना चाहती थी और उनकी फ़ौज में शामिल होना चाहती थी। लेकिन जब उसे पता चला कि सुभाष बाबू उसके दिए हुए आभूषणों को वापस करने आये हैं तो वह नाराज हो गई। तब उसने शर्त रखी कि अगर वे उसे उनकी आजाद हिंद फौज में शामिल कर लेंगे तो वो आभूषण वापस ले लेंगी। और अन्ततः सुभाष चंद्र बोस को ये शर्त माननी ही पड़ी। साथ ही नेताजी सुभाष ने राजमणि की देशभक्ति और समर्पण को देखते हुए उसका नाम सरस्वती भी रख दिया इस प्रकार राजमणि अब सरस्वती राजमणि बन गई।

इसके बाद सरस्वती राजमणि को आजाद हिंद फौज के ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेनिंग दी गई और बाद में जासूस के तौर पर तैयार किया गया। इसके लिए उसको अपने बाल भी कटवाने पड़े और लड़के जैसा हुलिया बनाना पड़ा।

ये द्वितीय विश्व युद्ध का समय था। और इस युद्ध में आजाद हिंद फौज जापान की मदद कर रही थी। क्योंकि जापान अंग्रेजों का दुश्मन था और नेताजी सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि हमारे दुश्मन का दुश्मन भी हमारा दोस्त होता हैं।

इस युद्ध में अंग्रेजों की आगे की रणनीति जानने के लिए नेताजी सुभाष ने सरस्वती राजमणि तथा एक और ऐसी ही होनहार और बहादुर युवती को जासूसी करने के लिए चुना था। 

इन दोनों को अंग्रेजों के खेमें में भेज दिया गया और वहां से ये खुफिया जानकारी आजाद हिंद फौज तक पहुंचाती रहीं ये सिलसिला यूँही चलता रहता लेकिन अचानक राजमणि की साथी को अंग्रेजों ने जासूसी करते हुए पकड़ लिया और जेल में बंद कर दिया। ऐसे हालातों में राजमणि को वहां से अपनी जान बचाकर भाग जाना चाहिए था लेकिन उसने अपने साथी को वहां अकेला छोड़कर जाना ठीक नही समझा। अब उसने अपने साथी को छुड़ाने के लिए एक योजना बनाई जो कामयाब हुई लेकिन जब वे भाग रही थी तब अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें देख लिया और गोलियां चलाने लग गए। इन गोलियों में से 1 गोली राजमणि के पैरों में जा लगी और वो वहीं गिर गई। लेकिन उसने हिम्मत नही हारी और फिर दोनों उसी तेजी से भागने लगी। 

अंग्रेजों के सिपाहियों से बचने के लिए वे एक पेड़ पर चढ़ गई और 3 दिन तक उसी पेड़ पर बैठी रहीं। फिर वे वहां से जैसे तैसे आजाद हिंद फौज के कैम्प में आ गई।

जब इस बात का पता नेताजी सुभाष को चला तो उन्होंने सरस्वती राजमणि की बहादुरी की तारीफ की और कहा कि शायद वे भारत की सबसे कम उम्र की जासूस होंगी। क्योंकि उस वक्त सरस्वती की उम्र महज 16 साल थी। 

इसके बाद जो हुआ उसने पूरे देश और आजाद हिंद फौज को तोड़ कर रख दिया ये एक ऐसी खबर थी जिसे सुनकर हर देशवासी रोया था लग रहा था जैसे देश की जनता पर कोई पहाड़ टूट पड़ा हो। इस खबर को सुनकर हर कोई हैरान और गमगीन था। लोगों को विश्वास नही हुआ कि ये सच में हुआ या एक बुरा सपना हैं? ये खबर थी देश की आजादी के वास्तविक नायक रहें नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्लेन क्रैश में दुःखद मौत!! 

देश की आजादी के लिए देशवासियों से खून मांगने वाला खुद भी अपना खून देकर चला गया। अन्ततः देश की आजादी के ख़्वाब देखने वालों के ख्वाब पूरे हुए लेकिन ये उनके जीते जी नही हो सका।

 15 अगस्त 1947 की भोर का सूर्योदय भारत के स्वर्णिम भविष्य का उदय था। इस भोर के भी दो पहलू नजर आते हैं एक, जिन्हें सत्ता चाहिए थी उन्हें सत्ता मिल गई लेकिन जिन्होंने देश को आजादी दिलाने में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया उन्हें गुमनामी भरी जिंदगियां बितानी पड़ी।

 ऐसा ही हुआ सरस्वती राजमणि के साथ भी। वे 13 जनवरी 2018 तक तमिलनाडु के चेन्नई में गुमनाम और अभावों में जीवन यापन करती रही। उन्हें तत्कालीन सरकार से कोई सहानुभूति नही मिली। अपनी आत्मकथा “हार नही मानूँगी” में उन्होंने जिक्र किया कि-

आजाद भारत की पहली सरकार ने मेरे सामानों को जब्त कर लिया इनमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिखे पत्र भी शामिल थे। इसके बाद मेरी जासूसी भी करवाई गई। मैं जब इन सब से व्यथित होकर प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने गई तो उन्होंने मिलने से ही इनकार कर दिया। लेकिन राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद ने मेरी व्यथा समझी और मुझे 5000 रुपये भी दिए।

राजामणि ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब वे स्थायी रूप से भारत में बसने के लिए आई तो कांग्रेस सरकार ने उनके सारे सामान को जब्त कर लिया, जिनमें नेताजी के हस्तलिखित पत्र भी थे। सरकार यहीं तक नहीं रुकी, उन्होंने मेरी जासूसी तक करवाई और जब मैं अपनी व्यथा सुनाने दिल्ली पहुंची तो नेहरू जी ने मिलने से इनकार कर दिया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने न केवल मेरी बात सुनी, वरन मुझे 5000 रुपये भी दिए, ताकि मैं कहीं किराए का मकान ले सकूं। 

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Piru lal Kumbhkar  के बारे में
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