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राजनीतिक कुचक्र में फंस चुका हैं संविधान का बनाया हुआ ‘राज्यपाल पद’

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एक सवाल है जो कई दफा दिमाग में आया कि किसी भी राज्य का राज्यपाल, हमेशा केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी का ही सदस्य क्यो चुना जाता है ? जबकि संविधान में स्पष्ट लिखा है कि सक्रिय राजनीतिक चेहरा, राज्यपाल पद पर नियुक्त नही किया जा सकता।

इस विषय पर सरकारिया आयोग की सिफारिशों को भी हमेशा से दरकिनार किया जाता रहा है। 

सरकारिया आयोग जिसका गठन जून, 1983 में भारत सरकार द्वारा किया गया था। तथा इसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायधीश न्यायमूर्ति राजिन्दर सिंह सरकारिया थे।

इस आयोग का प्रमुख कार्य भारत के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से सम्बन्धित शक्ति संतुलन पर अपनी रिपोर्ट देना था।


सरकारिया आयोग ने लगभग 5 साल बाद 1988 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। जिसमें बताया गया हैं कि- 


राज्यपाल के रूप में नियुक्त किये जाने वाले व्यक्ति को राज्य, जिसमें वह नियुक्त किया जाए, के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए तथा उसे राज्य की राजनीति में रुचि नहीं रखना चाहिए। उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो सामान्य रूप से या विशेष रूप से नियुक्त किये जाने के पहले राजनीति में सक्रिय भाग न ले रहा हो।


राज्यपाल का चयन करते समय अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तियों को समुचित अवसर दिया जाना चाहिए।

राज्यपाल के रूप में किसी व्यक्ति का चयन करते समय राज्य के मुख्यमंत्री से प्रभावी सलाह लेने की प्रक्रिया को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए।


किसी ऐसे व्यक्ति को राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, जो कि केन्द्र में सत्तारूढ़ का दल का सदस्य हो, जिसमें शासन किसी अन्य दल के द्वारा चलाया जा रहा हो।


यदि राजनीतिक कारणों से किसी राज्य की संवैधानिक व्यवस्था टूट रही हो, तो राज्यपाल को यह देखना चाहिए कि क्या उस राज्य में विधानसभा में बहुमत वाली सरकार का गठन हो सकता है।


यदि नीति सम्बन्धी किसी प्रश्न पर राज्य की सरकार विधानसभा में पराजित हो जाती है तो शीघ्र चुनाव कराये जा सकने की स्थिति में राज्यपाल को चुनाव तक पुराने मंत्रीमण्डल को कार्यकारी सरकार के रूप में कार्य करते रहने देना चाहिए।


यदि राज्य सरकार विधानसभा में अपना बहुमत खो देती है तो राज्यपाल को सबसे बड़े विरोधी दल को सरकार बनाने का आमंत्रण देना चाहिए, और विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश देना चाहिए। यदि सबसे बड़ा दल सरकार गठित करने की स्थिति में न हो, तो राज्यपाल को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश करनी चाहिए।


लेकिन वर्तमान में राज्यपाल का पद, केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के हाथ का खिलौना बन चुका है। जिस व्यक्ति से पार्टी का मन भर जाता है उसें किसी भी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाता हैं।

इसी व्यवस्था पर साहित्यकार शरद जोशी ने व्यंग लिखा जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने लिखा कि” जो राज्यों में काम के न थे उन्हें दिल्ली बुला लिया, जो वहां भी काम के न थे उन्हें राज्यपाल बना दिया और जो सबसे नकारे थे उन्हें अम्बेस्डर बना दिया”


राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है और वैसे भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी नाम मात्र के ही संवैधानिक पद बचें हैं अगर इन्हें भी राजनीति के चंगुल से नही बचाया गया तो फिर इस देश का क्या होगा यह बात या तो भगवान ही जानेंगे या नेता।।।

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Piru lal Kumbhkar  के बारे में
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